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डांडी कांठी क्लब ने धूमधाम के साथ मनाया उत्तराखण्ड का लोकपर्व “इगास-बग्वाल”, पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ खेला भैलो

डांडी कांठी क्लब ने धूमधाम के साथ मनाया उत्तराखण्ड का लोकपर्व “इगास-बग्वाल”, पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ खेला भैलो

देहरादून।  उत्तराखण्ड के लोकपर्व “इगास-बग्वाल” को द्रोणनगरी में पारंपरिक रूप से मनाया गया। इस दौरान लोक संस्कृति की सप्तरंगी छटा भी बिखरी। ढोल-दमाऊ, रणसिंघा आदि लोक वाद्ययंत्रों ने सभी को उल्लास से भर दिया और हर कोई झूमते-नाचते भैलो खेलने लगा। साथ ही, पारंपरिक कलयो की खुशबू से भी पूरा वातावरण महकता रहा। जैसा की विदित है कि उत्तराखंड में दीपावली के 11 दिन बाद इगास बग्वाल पर्व मनाया जाता है। डांडी कांठी क्लब के नेतृत्व में 6 नंबर पुलिया निकट सूचना भवन देहरादून में लोकपर्व “इगास-बग्वाल” को बड़े ही धूमधाम से मनाया गया। कार्यक्रम में पहुंचे कलाकारों ने अपनी प्रस्तुतियों से लोगों को थिरकने पर मजबूर किया तो वहीं लोक वाद्य यंत्रों की थाप पर लोगों ने भैलो खेल नृत्य किया। लोगों ने कार्यक्रम में रोट, अरसा पारंपरिक पकवान का भी खूब लुत्फ उठाया। इस मौके पर विचार एक नई सामाजिक संगठन के सचिव व वरिष्ठ पत्रकार राकेश बिजलवाण को स्वास्थ्य सेवाओं में उनके सामाजिक कार्यों के लिए सम्मानित किया गया। इस मौके पर विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य करने वाली कई हस्तियों को सम्मानित किया गया।

वहीं इगास कार्यक्रम में डांडी-कांठी क्लब ने अपनी वार्षिक स्मारिका दृढ़ संकल्प का भी विमोचन किया। कार्यक्रम में भेलो खेल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की भी धूम रही। गायिका मंजू नौटियाल, गायक धनराज शौर्य, राम कौशल और सुरेन्द्र कोली एवम साथियों द्वारा रंगारंग प्रस्तुतियां दी। धुमसू मंच एवं थाती माटी समिति द्वारा लोक वाद्य यंत्रों पर शानदार प्रस्तुतियां दी गई, जिसने दर्शकों का मन मोह लिया। डांडी-कांठी क्लब के अध्यक्ष विजय भूषण उनियाल ने कहा कि विलुप्त होती संस्कृति के संरक्षण को इसी तरह से सामूहिक प्रयास करने जरूरी हैं। आज गांव खाली हैं और शहरों में रह रहे लोग भी अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं। क्लब 2014 से लगातार इगास-बग्वाल पर्व को मानती आ रही है।

भैलो खेल, इगास का मुख्य आकर्षण
पहाड़ की अनूठी परंपरा में से एक “इगास-बग्वाल”, जिसे इगास पर्व कहा जाता है। ईगास-बग्वाल के दिन आतिशबाजी के बजाय भैलो खेलने की परंपरा है। ईगास-बग्वाल वाले दिन भैलो खेलने की परंपरा पहाड़ में सदियों पुरानी है। भैलो को चीड़ की लकड़ी और बेल (जंगली रस्सी), तार या रस्सी से तैयार किया जाता है। चीड़ की लकड़ियों की छोटी-छोटी गठरी एक रस्सी से बांधी जाती है। इसके बाद खुले स्थान पर पहुंच कर लोग भैलो को आग लगाते हैं। इसे खेलने वाले रस्सी को पकड़कर उसे अपने सिर के ऊपर से घुमाते हुए नृत्य करते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से मां लक्ष्मी सभी के कष्टों को दूर करने के साथ सुख-समृद्धि देती है।

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