जलवायु वैज्ञानिकों व शोधकर्ताओं के अध्ययन के अनुसार मई में महसूस की गई लू अब तक की सबसे अधिक रही। क्लाइमामीटर के शोधकर्ताओं ने मई में देश में प्रचंड व लंबे समय तक चलने वाली लू प्राकृतिक रूप से होने वाली घटना अल-नीनो का परिणाम बताया।
इस बदलाव से पता चलता है कि मौजूदा जलवायु में बीते सालों की तुलना में कम से कम 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान अधिक रहा जबकि वष्रा परिवर्तन में कोई महत्त्वपूर्ण बदलाव नहीं दिख रहा है। विशेषज्ञों के अनुसार जीवाश्म ईधन के उपयोग के कारण भारत में लू यानी ताप लहर तापमान की असहनीय सीमा तक पहुंच गई है।
तापमान का 50 डिग्री के करीब पहुंचने का कोई तकनीकी समाधान नहीं है। अल-नीनो व मानवजनित जलवायु परिवर्तन के संयुक्त प्रभाव के तहत दुनिया इस तरह के गरम मौसम से जूझ रही है। गरमी और अधिक तेज होती जा रही है। मई में दिल्ली समेत उत्तर के कई इलाकों में तापमान 52 डिग्री तक पहुंच गया।
उप्र, मप्र, बिहार, झारखंड व ओडिशा में स्थिति काबू से बाहर हो गई। भीषण गरमी के कारण सैकड़ों लोगों की मौत हो गई और हजारों हीट स्ट्रोक की चपेट में आ गए। बिजली की खपत इतनी बढ़ गई कि आपूर्ति संभव नहीं रही।
जल भंडारण तेजी से कम होता जा रहा है जिससे जल संकट बढऩे की आशंका से इंकार नहीं किया जा रहा। मौसम विज्ञानी इसे ला-नीनो इफेक्ट भी मान रहे हैं। उनका कहना है, जिस साल अल-नीनो खत्म होता है, उस साल तापमान थोड़ा बढ़ जाता है।
जलवायु परिवर्तन व प्राकृतिक परिवर्तनशीलता के दरम्यान जटिल परस्पर क्रिया के चलते भविष्य में लू के बढऩे की आशंका से इंकार नहीं किया जा रहा। याद हो तो इसी अप्रैल में इतनी भीषण गरमी पड़ी कि कहा गया कि यह 120 साल बाद हुआ।
भारत ही नहीं, दुनिया भर में इस जानलेवा गरमी की मार पड़ रही है जिसका असर कृषि व खाद्य सुरक्षा पर भी पड़ सकता है। कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा तो होगा ही। सेहत संबंधी दिक्कतें भी बढऩे की आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं।
भीषण गरमी को रोकने के लिए विभिन्न सुझाव दिए जाते हैं मगर प्रकृति के इस प्रकोप से बच पाना अब आसान नहीं रहा। वनों की कटाई, प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग तथा कार्बन उत्सर्जन को थामने की बस बातें ही बनाई जा रही हैं। गरमी को रोकना अब आसान नहीं रहा।