बतौर प्रधानमंत्री तीसरे कार्यकाल में यह धारणा टूट गई है कि नरेंद्र मोदी दृढ़ संकल्प वाले नेता हैं और वे किसी फैसले को वापस नहीं लेते हैं। इस कार्यकाल में सामने यह आया है कि सरकार चलती रहे, इस तकाजे के कारण वे किसी अन्य नेता की तरह ही व्यवहार करते हैं। इसका ताजा उदाहरण उच्च नौकरशाही में लेटरल एंट्री से संबंधित विज्ञापन को वापस लेने का प्रकरण है। इसके पहले वक्फ़ बोर्ड विधेयक, पूंजीगत लाभ टैक्स में बढ़ोतरी, और कथित सेकुलर कानून लाने का इरादा जताने के बाद एनडीए समन्वय समिति की बैठक बुलाने की तत्परता से ये रुझान जाहिर हुआ है। पिछले चार जून को आए चुनाव नतीजों के बाद भाजपा नेतृत्व ने अपनी ताकत निरंतरता की धारणा बनाने में झोंकी। मगर सिर्फ ढाई महीनों में जाहिर हो गया है कि नए बने संसदीय समीकरण के बीच फैसलों को स्ट्रीमरोल करने का पुराना तरीका अब नहीं चल पा रहा है। लोकतांत्रिक नजरिए से इसे सकारात्मक घटनाक्रम कहा जाएगा। बहरहाल, यह लेटरल एंट्री के मुद्दे पर सरकार को सियासी झटका भले लगा हो, लेकिन इससे इस नीति में कोई बदलाव नहीं होने जा रहा है।
दरअसल, इसके जरिए 45 पदों की भर्ती के लिए निकले विज्ञापन का विरोध करने वाले विपक्षी दलों को नीतिगत रूप से भर्ती के इस तरीके पर कोई एतराज रहा भी नहीं है। “कुशलता” और “प्रतिभा” से संबंधित तर्कों पर सत्ता पक्ष और विपक्ष में कोई मतभेद नहीं है। जबकि इन्हीं तर्कों से नीति निर्माण की सारी प्रक्रिया कॉरपोरेट सेक्टर के हाथ में दे दी गई है। गौरतलब है कि विपक्ष ने जारी विज्ञापन में आरक्षण ना होने का भावनात्मक मुद्दा उछाला। भारत में गुजरे तीन दशकों सारी सियासी बहस और गोलबंदी जातीय या सांप्रदायिक मुद्दों के इर्द-गिर्द सिमटी हुई है। इन दोनों तरह के मुद्दों पर राजनीतिक ध्रुवीकरण होने की संभावना लगातार बनी रहती है। इसे समझते हुए ही केंद्र ने अपने कदम में सुधार का फैसला किया है। यह साफ कहा गया है कि लेटरल एंट्री में जातीय आरक्षण का प्रावधान कर नए सिरे विज्ञापन जारी होगा। जाहिर है, विपक्ष को तब कोई आपत्ति नहीं होगी।